अलसी तिलहन फसल है और आजकल यह बहुत बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया जाता है। इसकी वजह है, इसमें ओमेगा फैटी एसिड का पाया जाना, अलसी के तेल का पेंट्स, वार्निश व स्नेहक बनाने के साथ पैड इंक तथा प्रेस प्रिटिंग हेतु स्याही तैयार करने में उपयोग किया जाता है। इसमें पोषक तत्वों की उचित मात्रा होने के कारण इसका उपयोग खाद के रूप में किया जाता है।
इसकी खेती के लिए ठंडे व शुष्क जलवायु की जरूरत है, यह असल में रबी फसल है। इसके उचित अंकुरण हेतु 25-30 डिग्री से.ग्रे. तापमान तथा बीज बनते समय तापमान 15-20 डिग्री से.ग्रे. होना चाहिए।
जमीन:
इसकी खेती के लिये काली भारी एवं दोमट (मटियार) मिट्टी सही है, अधिक उपजाऊ मृदाओं की अपेक्षा मध्यम उपजाऊ मृदायें अच्छी समझी जाती हैं। उचित जल निकास का प्रबंध होना चाहिए। खेत भुरभुरा एवं खरपतवार रहित होना चाहिये, दो से तीन बार हैरो चलाना आवश्यक है, जिससे नमी संरक्षित रह सके।
अलसी के बीज को कार्बेन्डाजिम की 2.5 से 3 ग्राम मात्रा प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करना चाहिये अथवा ट्राइकोडरमा विरीडी की 5 ग्राम मात्रा अथवा ट्राइकोडरमा हारजिएनम की 5 ग्राम एवं कार्बाक्सिन की 2 ग्राम मात्रा से प्रति किलोग्राम बीज को उपचारित कर बुवाई करनी चाहिये।
बेहतर उत्पादन के लिए इसे 2 सिंचाई की आवश्यकता होती है, पहली सिंचाई बुवाई के एक माह बाद एवं दूसरी सिंचाई फल आने से पहले करनी चाहिये। विभिन्न प्रकार के रोग जैसे गेरूआ, उकठा, चूर्णिल आसिता तथा आल्टरनेरिया अंगमारी एवं कीट यथा फली मक्खी, अलसी की इल्ली, अर्धकुण्डलक इल्ली चने की इल्ली द्वारा भारी क्षति पहुचाई जाती है। इसके लिए उचित प्रबंधन किए जाने की जरूरत है।
अलसी की जब पत्तियाँ सूखने लगें, केप्सूल भूरे रंग के हो जायें और बीज चमकदार बन जाय तब फसल की कटाई करनी चाहिये। बीज में 70 प्रतिशत तक सापेक्ष आद्रता तथा 8 प्रतिशत नमी की मात्रा भंडारण के लिये सर्वोत्तम है।
अलसी के लिए सामान्य पीएच मान वाली भूमि अनुकूल मानी जाती है। अलसी की खेती को ठंडी एवं शुष्क जलवायु की आवश्यकता पड़ती है। अलसी की खेती भारत में ज्यादातर रबी सीजन में की जाती है। इस दौरान वार्षिक वर्षा 50 से 55 सेटीमीटर के बीच होती है। वहां, अलसी की खेती सफलता पूर्वक की जा सकती है। अलसी के बेहतर अंकुरण के लिए 25 से 30 डिग्री सेंटीग्रेट तापमान और बीज बनने के दौरान तापमान 15 से 20 डिग्री सेंटीग्रेड होना चाहिए। अलसी को परिपक्व अवस्था पर उच्च तापमान, कम नमी और शुष्क वातावरण की जरूरत होती है। मतलब कि इसकी खेती के लिए सम-शीतोष्ण जलवायु उपयुक्त मानी जाती है।
अलसी की बिजाई कब की जाती है
किसान भाइयों को यह मशवरा दिया जाता है, कि वे अलसी के बीजों की बिजाई के लिए सिंचित जगहों पर नवंबर एवं असिंचित क्षेत्रो में अक्टूबर के प्रथम पखवाडे में बिजाई करें। इसके अतिरिक्त उतेरा खेती के लिये धान कटने के 7 दिन पूर्व बिजाई की जानी चाहिये। बतादें, कि उतेरा पद्धति धान लगाये जाने वाले इलाकों में प्रचलित है। धान की खेती में नमी का सदुपयोग करने के उद्देश्य से धान के खेत में अलसी बोई जाती है। उतेरा पद्धति में धान फसल कटाई के 7 दिन पूर्व ही खेत में अलसी के बीज को छटक दिया जाता है। इससे धान की कटाई से पूर्व ही अलसी का अंकुरण हो जाता है। इससे यह लाभ होता है, कि संचित नमी से ही अलसी की फसल पककर तैयार होती है। जल्दी बिजाई करने पर अलसी की फसल को फली मक्खी और पाउडरी मिल्डयू इत्यादि से बचाया जा सकता है।
अलसी की उन्नत किस्में कृषि अनुसंधान द्वारा विकसित की जाती हैं। असिंचित क्षेत्रों के लिए और सिंचित क्षेत्रों के लिए असली की प्रजातियों को दो हिस्सों में विभाजित किया है, जिन्हें अधिक उत्पादन और जलवायु के अनुरूप उगाया जाता है। सिंचित इलाकों के लिये- सुयोग, जे एल एस- 23, पूसा- 2, पी के डी एल- 41, टी- 397 इत्यादि प्रमुख किस्म हैं। इन किस्मों को सिंचित क्षेत्रों के लिए विकसित किया है। इन किस्मों को तकरीबन दोनों ही क्षेत्रों में उगा सकते हैं। वहीं, इनके उत्पादन की बात करें, तो 13 से 15 क्विंटल प्रति हेक्टेयर हो सकती है।
असिंचित इलाकों के लिये - शीतल, रश्मि, भारदा, इंदिरा अलसी- 32, जे एल एस- 67, जे एल एस- 66, जे एल एस- 73 इत्यादि प्रमुख किस्में है। इन किस्मों को असिंचित क्षेत्रों में खेती के लिए तैयार किया गया है। इन किस्मों में लगने वाले पौधों की लम्बाई औसतन 2 फीट तक होती है। साथ ही, पैदावार 12 से 15 क्विंटल प्रति हेक्टेयर के हिसाब से हो सकती है।
उपरोक्त किस्मों के अतिरिक्त भी अलसी की बहुत सारी अन्य उन्नत किस्में भी हैं। जैसे - पी के डी एल 42, जवाहर अलसी दृ 552, जे. एल. एस. - 27, एलजी 185, जे. एल. एस. - 67, पी के डी एल 41, जवाहर अलसी - 7, आर एल - 933, आर एल 914, जवाहर 23, पूसा 2 इत्यादि।
कैसे करें बीजोपचार ?
अलसी के बिजाई दो तरह से की जाती है। पहले ड्रिल विधि के माध्यम से और दूसरी उतेरा (छिडककर) पद्धति से बीजों की बुवाई की जा सकती है। ड्रिल विधि के माध्यम से अलसी की बुवाई के लिए 25 से 30 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से बीजों की आवश्यकता होती है। इस विधि में कतार से कतार के मध्य का फासला 30 सेंटीमीटर और पौधे से पौधे की दूरी 5 से 7 सेंटीमीटर तक रखनी चाहिये। बीज को जमीन में 2 से 3 सेंटीमीटर की गहराई पर बोना चाहिये। उतेरा पद्वति के लिये 40 से 45 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर की दर अलसी की बुआई के लिए अच्छी मानी जाती है। बुवाई से पूर्व बीज को कार्बेन्डाजिम की 2.5 से 3 ग्राम मात्रा प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करना चाहिये। अथवा ट्राइकोडरमा विरीडी की 5 ग्राम मात्रा या ट्राइकोडरमा हारजिएनम की 5 ग्राम एवं कार्बाक्सिन की 2 ग्राम मात्रा से प्रति किलोग्राम बीज को उपचारित कर बिजाई करनी चाहिए।
अलसी की खेती में बीज के अंकुरण एवं उचित फसल बढ़ोतरी के लिए जरूरी है, कि बुआई से पहले खेत को बेहतर ढ़ंग से तैयार कर लिया जाए। फसल कटाई के उपरांत खेत में 8 से 10 टन प्रति हेक्टेयर सड़ी गली गोबर की खाद का छिडक़ाव कर मृदा पलटने वाले देशी हल अथवा हैरो से 2 से 3 बार जुताई कर गोबर की खाद को मिलाकर जमीन तैयार करनी चाहिए। इसके उपरांत पाटा चलाकर खेत को एकसार कर लेना चाहिए, जिससे कि जमीन में नमी बरकरार बनी रहे।
खाद किस तरह से डालें
बतादें, कि अलसी की खेती के लिए भूमि की तैयारी के दौरान 8 से 10 टन प्रति हेक्टेयर की दर से गोबर की खाद अंतिम जुताई में मृदा में बेहतर ढंग से मिलाकर करें। इसके साथ-साथ सिंचित क्षेत्रों के लिए नाइट्रोजन 100 किलोग्राम, फॉस्फोरस 75 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से उपयोग करें।
असिंचित इलाकों के लिए बेहतरीन पैदावार पाने हेतु नाइट्रोजन 50 कि.ग्रा. फॉस्फोरस 40 कि.ग्रा. और 40 कि.ग्रा. पोटाश की दर से प्रयोग करें। असिंचित स्थिति में नाइट्रोजन व फॉस्फोरस और पोटाश की सम्पूर्ण मात्रा तथा सिंचित दशा में नाइट्रोजन की आधी मात्रा व फॉस्फोरस की संपूर्ण मात्रा बुवाई के समय चोगे द्वारा 2-3 से.मी. नीचे प्रयोग करें। सिंचित दशा में नाइट्रोजन की शेष आधी मात्रा टॉप ड्रेसिंग के रुप में पहली सिंचाई के पश्चात करें।
किसान अपनी अलसी की फसल में लगने वाले रोग और कीटों कैसे संरक्षण करें
अलसी की खेती में अल्टरनेरिया झुलसा, रतुआ अथवा गेरुई, उकठा और बुकनी रोग लगता है। इन रोगों की रोकथाम के लिए फसल में मैन्कोजेब 2.5 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से 40 से 50 दिन बुवाई के बाद छिडकाव करें। हर 15 दिन के समयांतराल पर छिडकाव करते रहना चाहिए, जिससे की रोग न लग सके। रतुआ अथवा गेरुई और बुकनी रोग की रोकथाम के लिए घुलनशील गंधक 3 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से छिडकाव करना चाहिए।
ये भी पढ़ें: रोग व कीटों से जुड़ी समस्त समस्याओं के हल हेतु हेल्पलाइन नंबर जारी हुआकीट प्रकोप - अलसी की फसल में फली मक्खी, इल्ली इत्यादि विभिन्न प्रकार के कीटों का प्रकोप होता है। इसके प्रौढ़ कीट गहरे नारंगी रंग के छोटी मक्खी जैसे होते हैं। ये कीट अपने अंडे फूलो की पंखुडियों में देते है, जिससे पौधे में फूलों से बीज नहीं बन पाते हैं। यह कीट उत्पादन को 70 फीसद तक प्रभावित करता है। इसकी रोकथाम के लिए मोनोक्रोटोफास 36 ईसी, 750 मिलीलीटर या क्युनालफास 1.5 लीटर मात्रा 900 से 1000 लीटर पानी में मिलाकर प्रति हेक्टेयर की दर से छिडकाव करना चाहिए।
अलसी का तेल कितनी चीजों में उपयोग किया जाता है
अलसी भारत की महत्वपूर्ण औद्योगिक तिलहन फसलों में से एक है। भारत में अलसी की फसल का व्यापारिक उद्देश्य से उत्पादन किया जाता है। इसकी खेती रेशेदार फसल के तौर पर की जाती है। अलसी के बीजो में तेल की मात्रा काफी ज्यादा विघमान होती है। परंतु, इसके तेल का इस्तेमाल खाने में न करके दवाइयों को निर्मित करने में किया जाता है। इसके तेल को वार्निश, स्नेहक, पेंट्स को तैयार करने के अलावा प्रिंटिंग प्रेस के लिए स्याही एवं इंक पैड को तैयार करने में किया जाता है। म.प्र. के बुन्देलखंड क्षेत्र में इसका तेल खाने में, साबुन बनाने और दीपक जलाने में किया जाता है। अलसी का बीज फोड़ों फुन्सी में पुल्टिस बनाकर इस्तेमाल किया जाता है। अलसी के तने से उच्च गुणवत्ता वाला रेशा अर्जित किया जाता है। साथ ही, रेशे से लिनेन भी निर्मित किया जाता है। अलसी की खली दूध देने वाले जानवरों के लिये पशु आहार के तौर पर इस्तेमाल की जाती है। वहींं, खली में विभिन्न पौध पौषक तत्वों की पर्याप्त मात्रा होने की वजह से इसका इस्तेमाल खाद के तौर पर किया जाता है।
अलसी का सेवन करने से बहुत सारी बीमारियों में फायदा मिलता है
अलसी का सेवन करना स्वास्थ्य के लिए काफी फायदेमंद होता है। इसके बीज एवं इसका तेल बहुत सारी बीमारियों की रोकथाम में फायदेमंद है। अलसी विश्व की छठी सबसे बड़ी तिलहन फसल है। इसमें लगभग 33 से 45 प्रतिशत तेल और 24 प्रतिशत कच्चे प्रोटीन होता है, यह एक चमत्कारी आहार है। इसमें दो आवश्यक फैटी एसिड पाए जाते हैं, अल्फा-लिनोलेनिक एसिड और लिनोलेनिक एसिड। अलसी के नियमित सेवन किया जाए तो कई प्रकार के रोगों जैसे कैंसर, टी.बी., हृदय रोग, उच्च रक्तचाप, मधुमेह, कब्ज, जोड़ों का दर्द आदि कई रोगों से बचा जा सकता है। यह हमारे शरीर में अच्छे कॉलेस्ट्रोल की मात्रा को बढ़ाता है और ट्राइग्लिसराइड कॉलेस्ट्रोल की मात्रा को कम करने में सहायक होता है। यह हमारे हृदय की धमनियों में खून के थक्के बनाने से रोकता है और हृदय घात व स्ट्रोक जैसी बीमारियों से भी हमारा बचाव करता है। यह एंटीबैक्टेरियल, एंटीवायरल, एंटीफंगल, एंटीऑक्सीडेंट तथा कैंसर रोधी है। अलसी में तकरीबन 28 फीसद रेशा होता है और यह कब्ज के रोगियों के लिए काफी फायदेमंद साबित होता है।
फसल कटाई के दौरान ध्यान रखने योग्य बातें
अलसी की फसल बिजाई के करीब 100 से 120 दिनों पश्चात तैयारी हो जाती है। जब अलसी की फसल पूरी तरह से सूखकर पक जाए तभी इसकी कटाई करनी चाहिए। फसल की कटाई के शीघ्र बाद मड़ाई कर लेनी चाहिए। इससे इसके बीजों को कोई ज्यादा हानि नहीं होगी। अलसी की फसल की उपरोक्त विधि से खेती करने पर भिन्न-भिन्न किस्मों का उत्पादन भिन्न भिन्न होता है। प्रथम बीज उद्देशीय सिंचित दशा में 12 से 15 क्विंटल प्रति हेक्टेयर और असिंचित दशा में 10 से 12 क्विंटल प्रति हेक्टेयर और दो-उद्देशीय संचित और असिंचित दशा में 20 से 23 क्विंटल प्रति हेक्टेयर और 13 से 17 प्रतिशत तेल व 38 से 45 प्रतिशत तक रेशा अर्जित किया सकता है।